Tuesday, October 4, 2011

संसद भी ये, अदालत भी ये, चुनव आयोग भी ये

क्या यह वाकई सोचने की बात नहीं है कि अन्ना टीम के नाम पर एकत्र हुए सवर्ण वर्चस्व की मानसिकता के लोग समानांतर सरकार ही नहीं, समूची व्यवस्था ही समानांतर रूप से चलाना चाहते हैं। संवैधानिक संसद में इन्हें विश्वास नहीं और लोकपाल के नाम पर सारी शक्तियाँ एक ऐसे केंद्र को सौंपने जा रहे हैं जिसकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होगी और न ही उसे जनता चुनेगी।
कमाल की बात यह है कि यह केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी की टीम राजनीतिक दल बनाकर किसी तरह का परिवर्तन नहीं लाना चाहती। यह भीड़ जोड़कर हाथ उठवा कर अपनी बात का समर्थऩ करवा लेने में यकीन रखते हैं और कहते हैं कि यही संसद सबसे बड़ी है। चुनाव लड़ने में यह दिलचस्पी नहीं रखते, लेकिन काम सारे वही करना चाहते हैं, जो निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को सौंपे गए हैं।
इनकी खुद की संसद भी है, जिसे ये कोर कमेटी कहते हैं। कोर कमेटी के सदस्यों के रूप में इनके मंत्री भी हैं, जो स्वयंभू हैं। कानून के मसौदे तैयार करने वाली इनकी स्टेंडिंग कमेटी भी है। अब कमाल की बात यह है कि इऩ्होंने अपना चुनाव आयोग भी अलग बना लिया है। ये तमाम नेताओं के क्षेत्रों में जा-जाकर जनमत सर्वेक्षण करवा रहे हैं। अदालत को प्रशांत भूषण मैनेज करते हैं, यह बात एक सीडी में कही जा रही है। वैसे भी लोकपाल में न्यायिक अधिकार भी समाहित करके यह सुप्रीम कोर्ट के अधिकार भी कम करना चाहते हैं।
तो सवाल यह है कि इस लोकतंत्र के समानांतर तानाशाही वाला अन्ना का लोकतंत्र क्या बेहतर रहेगा..मुझे तो लगता है कि अरविंद केजरीवाल को मौजूदा लोकतंत्र में यही खामी लगती है कि वे किसी भी तरह से आरक्षण खत्म नहीं करवा पा रहे हैं। और, इसीलिए यह सारी कवायद की जा रही है। यह पहलू कम खतरनाक नहीं है। आज इस पर विचार नहीं किया गया और इनके खतरनाक इरादों को नहीं समझा गया तो भ्रष्टाचार के नाम पर लोकतंत्र को हाईजैक करने की कोशिश में तो नहीं है..
क्या ऐसा तो नहीं कि एक बार राम मंदिर के नाम पर भारतीय जनता पार्टी ने देश को भावनात्मक ज्वार में लपेटकर सत्ता हथिया ली थी और फिर पूरे देश में सरकारी कंपनियों को बेचकर निजी हाथों में सौंपने का दुष्चक्र चला दिया था। मुख्य उद्देश्य वहां भी आरक्षण को बेमानी करना था क्योंकि निजी कंपनियों में आरक्षण नहीं देना पड़ता है।

Tuesday, September 6, 2011

KNOW MORE ABOUT ANNA

{I received this article from Mr. Ravindra Saadhu. I am thankful to him..I am publishing the article, as it is...}


Millions of Indians, mainly the middle strata amongst the upper castes, were waiting for an Anna to descend on them with an Indian edition of Talibanism, says Chandrabhan Prasad ji.
Yes I agree with above para
But who will make the new law? Members of Parliament or the Anna Hazare-led battery of NGO operatives? And where will the new law be drafted -- on the streets or inside Parliament? What is the experience in democracies around the world? Can India as a democracy be an exception?!
Team Anna is trying make law from street not inside parliament. This mob of people remind us the time of anti mandal commission, when many people were trying to kill himself for what everybody knows...
It is true that corruption is a menace that must be uprooted and a new law enacted in the changing circumstances. India [ Images ] has seen an explosion of wealth post 1990 which has resulted in rampant loot.
Yes we all agree corruption should go, for this we need social revolution .......
I agree with Team Anna that politicians are corrupt and hence can't be trusted to make a tough law against corruption. I agree with Team Anna that the government bureaucracy is corrupt and hence all -- from bottom to top -- ought to be brought under one large agency.
Its true but we need to go in the root of this problem, if we really want to finish it.
But is India's underclass also as corrupt and morally fallen whose judgment of electing leaders can't be trusted and hence Team Anna of the pure has taken on the mantle of carrying this task!
In April Anna was fasting at Delhi's [ Images ] Jantar Mantar for his Jan Lok Pal. "Why don't you fight the election and enter Parliament to promote your anti-corruption agenda?" the media asked him. In his response which was telecast live, he declared that he couldn't win elections because voters barter their votes for a bottle of liquor or money.
If Anna donot want to contest election and voting, in my view it is also corruption, then in that case we have no right to complain.
Is this assessment of Anna Hazare correct? Governments have changed as a result of the dynamic electoral process in India. Are these changes brought about by bottles of liquor and money power?
According to Anna Hazare all politicians are corrupt, all government officials are corrupt, all government employees are corrupt -- and all voters are corrupt too. if everyone is corrupt, then how Anna and his team cannot be corrupt, I surprise, are they came from moon or from SUN, MOON or from some other place like ....
Thankfully, for Anna, NGOs are incorruptible and there is no need to bring them under the Jan Lok Pal. A peep into Anna's larger persona shows his instinctive hatred towards representative democracy, Parliament, politicians, voters, and instruments of the State.
Its surprasing most corrupted NGO should not come under this Lokpal, How those people can pass such type of statement
True, Anna, the new Gandhi, has transformed his village Ralegaon Siddhi radically. He has made his village hunger free. In the process, he has turned Ralegaon Siddhi into a tiny Taliban-like republic.
In this new Gandhi's republic drinking alcohol is strictly prohibited. Vegetarianism is practiced strictly. No one can sell or consume paan/bidi cigarettes or gutka.
In his republic, no one can watch films except religious ones. All forms of music, except bhajans, are prohibited. Even in a wedding procession, only religious songs are permitted. He says women should guard their virginity till wedlock and produce brave soldiers. What if a resident violates the above codes Get tied to a pole in the centre of the village; public flogging is the norm.
To the new Gandhi, patriotism is the reason all Indians are born. Strict moral codes regulate everyday life in Anna's republic. His word is the law that all residents must obey. He, in fact, is a law unto himself. He would accept no authority other than the authority of the Almighty. In Delhi's Tihar prison, he broke the rules of all the prison manuals that came his way.
Anna has now stepped out of his republic and wants to transform the whole of India into Ralegaon Siddhi.
In a billion plus India, millions of Indians -- mainly the middle strata amongst the upper castes, were waiting for an Anna to descend on them with an Indian edition of Taliban [ Images ]ism. All societies possess conservatives and India can't be an exception. The difference, however, is that when the upper castes display their conservatism, they turn into a Taliban. Anna has come to harvest that social constituency.
Would any esteemed readers like to reside in an India Anna Hazare is threatening to build?
I was watching NDTV TV, when Chandra Prasad Ji was explaing his view,


I salute him.Regards to all


Ramesh Chandra


Dr. Ramesh Chandra
Associate Professor
Department of Physics, D.S.B. Campus
Kumaun University, Nainital, Uttarakhand 263 002, IndiaHome Page: http://ramesh-chandrakublogspotcom.blogspot.com/

Tuesday, August 23, 2011

किसका लोकपाल और किसका आंदोलन !

पूरे देश में जन लोकपाल के आंदोलन की बयार है, ऐसा बताया जा रहा है. टीवी चैनलों पर जो दिख रहा है, वही समूचा देश है और अन्ना हजारे के ब्रांड के नाम पर पूरे देश ने अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण को नायक मान लिया है. ऐसे माहौल में यह समझ लेना और याद रखना जरूरी है कि वास्तव में यह आंदोलन किसका है और किसके लिए है.
बिना चुनाव लड़े, न्यायपालिका, संसद और सारी कार्यपालिका को नियंत्रित करने वाली संस्था लोकपाल की जनता से कोई जवाबदेही नहीं होगी. न तो जनता उसे चुनेगी और न ही उसे हटा सकेगी. मेरे ख्याल से तो दो तरह के लोकपाल विधेयक के प्रारूप हैं- सरकारी लोकपाल जो सांसदों (और प्रधानमंत्री) को बचाना चाहता है और दूसरा एनजीओ लोकपाल, जो एनजीओ (सरकार से हर वर्ष लंबी-चौड़ी राशि लेने वाले) को बचाना चाहता है. ध्यान रहे अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसौदिया और आज के दौर के अन्य तथाकथित नए रहनुमा सब एनजीओ चलाने में ही लगे हैं. एनजीओ भ्रष्टाचार के अड्डे रहे हैं, इसमें अरविंद केजरीवाल को छोड़कर किसी को भी संदेह नहीं होगा.
पूर्व कानून मंत्री शांतिभूषण तो यहाँ तक कह गए हैं कि पार्टियां अपने सांसदों को व्हिप जारी करके इस जनलोकपाल(पढ़े एनजीओ लोकपाल) के पक्ष में वोट डलवाएं..क्यों भई, सीधे कहो..कि आपका ड्राफ्ट सीधे ही राष्ट्रपति के पास पहुंचा दिया जाए..लोकसभा और राज्यसभा की जरूरत नहीं..या फिर राष्ट्रपति के पास भी क्यों भेजें...सिर्फ यह कह देना कि इसे शांतिभूषण जी ने बनाया है, इसलिए इसे सीधे ही लागू कर दो.
न्यायपालिका से भी बड़ी मशीनरी चाहिए इनके एनजीओ लोकपाल के लिए और ताकतवर तो इतना होगा कि जब कोई अंग्रेजीदां इस पर बैठ जाएगा तो वह सारे मानवाधिकारों को कुचलकर रख देगा.
एक और खास बात..ये सारे लोग जो एनजीओ लोकपाल के पक्ष में हैं..ये सब पूरी तरह से आरक्षण विरोधी हैं...एससी-एसटी और ओबीसी से इन्हें इतनी नफरत है कि इनके आंदोलन का इतना प्रसार होने के बाद भी कोई भी इन वर्गों से इनके इर्द-गिर्द नहीं फटक पा रहा है. योग्यता तो सिर्फ इनके ही अंदर है.
आंदोलन तो पहले भी हुए हैं लेकिन आपातकाल और बोफोर्स के समय ये तथाकथित ईमानदार लोग ध्यान नहीं दे पाए और बड़े स्तर पर पिछड़े वर्ग के नेता आगे आ गए थे. इस बार ये सतर्क हैं..किसी भी तरह से सत्ता या नेतृत्व तथाकथित सवर्णों के हाथों से न निकल जाए.
अगर इनका यह आंदोलन कामयाब हो गया तो याद रखना इनका अगला निशाना नौकरियों में एससी-एसटी और ओबीसी का आरक्षण हो सकता है...

Sunday, February 6, 2011

तीसरे मोर्चे की आवश्यकता

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का तटस्थ आकलन करने वाले पहले भी यह मानते रहे हैं और अब बाकी लोगों को भी यह बात समझ में आ रही होगी कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में सिवाय इस बात के कोई फर्क नहीं है कि दोनों तकनीकी तौर पर अलग पार्टियां हैं। नीतियों और कामकाज में कोई फर्क नहीं है।
ऐसे में तीसरे मोर्चे की आवश्यकता बहुत ज्यादा महसूस की जाने लगी है। जैसे-जैसे यूपीए में कांग्रेस का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, वह एकल दल की सरकार के तौर पर व्यवहार करने लगी है। मीडिया में एक तरह से आपातकाल के दौर की याद दिला दी है। कोई भी मीडिया संगठन सोनिया और राहुल के खिलाफ कुछ भी लिखने को तैयार नहीं है। न जाने क्यों, सब ये मानकर बैठे हैं कि इनसे बैर लिया तो खैर नहीं। जो नेता इनके खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत चिल्ला-चिल्लाकर दे रहे हैं, उनको मीडिया में कोई जगह ही नहीं मिल रही। न किसी अखबार में उनके बयान छपते हैं और न ही किसी टीवी चैनल में उन्हें जगह मिलती है।
बात कांग्रेस के विकल्प की करें तो दुख यही है कि भारतीय जनता पार्टी का ही नाम सामने रखा जाता है। आज भी गैर कांग्रेसी और गैर-भाजपाई दलों का गठबंधन बन जाए तो दोनों पार्टियां पानी मांगती फिरेंगी।
महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दोनों पार्टियां बुरी तरह से नाकाम रही हैं (उनके स्वयं के हितों के हिसाब से बात करें तो बेहद कामयाब रही हैं क्योंकि दोनों ही भ्रष्टाचार करने में कामयाब रही हैं और दोनों ही पूंजीपतियों के हितों वाली नीतियां बनाकर महंगाई बढ़ाने में कामयाब रही हैं।)।
स्थिरता के सवाल पर तीसरे मोर्चे के दलों की आलोचना की जाती है लेकिन क्या यह सही नहीं है कि इन दलों के गठबंधनों को कभी पूरा बहुमत मिला ही नहीं। हर बार कांग्रेस का सहारा लेना पड़ा है और कांग्रेस उन सरकारों को भला क्यों ठीक से चलने देना चाहेगी। जनता पार्टी के दौर में भी जनसंघ का घटक उस दल में मौजूद था। वीपी सिंह की सरकार बीजेपी के समर्थन वापस लेने से गिरी और चंद्रशेखर की सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से गिरी। अगर वामपंथी दल कांग्रेस की या यूपीए-1 की सरकार गिराएं तो वह राष्ट्रविरोधी कदम लेकिन कांग्रेस और बीजेपी इनकी सरकारें गिराएं तो कहा जाए कि ये लोग सरकार नहीं चला पाते।
बुद्धिजीवी वर्ग से अपेक्षा है कि इस मामले पर जातीय हितों से ऊपर उठकर सोचें और अपनी राय दें। असहमति का भी स्वागत है।